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भारत में महिला शिक्षा और सशक्तिकरण का सफर


 शीर्षक:-

भारत में महिला शिक्षा और सशक्तिकरण का सफर

 लेखक:- मनोज कुमार

 महिला को मानवता की शक्ति और सृजन की जननी माना जाता है। महिला के बिना मानव जाति की कल्पना भी नहीं  कर सकते। प्राचीन काल से महिलाएं पितृसत्तात्मक समाज द्वारा बनाए गए नियम कायदे पर चली हैं। आज की महिलाएं पारंपरिक जिम्मेदारी के साथ साथ देश और दुनिया की भी जिम्मेदारी उठा रही हैं फिर भी उपेक्षित हैं। उन्हें पुरुषों की तुलना में कम आंका जाता है। लेकिन अब स्थितियाँ तेजी से बदल रही हैं। महिलाएं तरक्की की राह पकड़ रही हैं। चाहे रास्ते में टहलते हुए स्वेटर बुनती अनपढ़ महिला हो या किसी बड़ी मल्टी नेशनल कंपनी की चीफ़ एक्सक्यूटिव ऑफिसर (सीईओ) महिला, चाहे अपने शिशु का पालना झुलाती गृहिणी महिला हो या सेना का फाइटर विमान उड़ाने वाली कमांडर महिला, आज महिलाएं हर वो काम कुशलता पूर्वक कर सकती हैं जिसे पुरुष करते हैं। इंदिरा गांधी, प्रतिभा पाटिल, मीरा कुमार, कल्पना चावला,  शिवांगी, सुरेखा यादव, प्रिया झिंगन, इंदिरा नूई, रितु करिधाल जैसी अनेक भारतीय महिलाओं ने पूरी दुनिया में अपनी सफलता का परचम लहराया है। सफलता की इस मंजिल को प्राप्त करने में महिलाओं को सामाजिक बंदिशों का लंबा सफर तय करना पड़ा है। महिला सशक्तिकरण का मतलब है महिलाओं को पुरुषों के बराबर का अवसर प्रदान करना। उन्हें पूर्ण संबल और आत्मनिर्भर बनाना। और यह शिक्षा से ही संभव है क्योंकि महिलाओं के उत्थान का सबसे बड़ा शस्त्र है शिक्षा।

 

     विज्ञान और तकनीकी विकास ने मानव समाज को आधुनिक बना दिया है। पृथ्वी से दूर दूसरे ग्रह पर मानव बस्ती बसाने की तैयारी चल रही है। मगर कन्या-भ्रूण हत्या से लेकर दहेज हत्या तक महिलाओं पर हो रहे अत्याचार में पुरुषों को महिला का साथ मिल जाना यह दर्शाता है कि मानव समाज का केवल लिबास आधुनिक हुआ है महिलाओं के प्रति सोच नहीं। भारत में महिलाओं की स्थिति समय-समय पर बदलती रही है। वैदिक काल में महिलाओं की स्थिति कुछ बेहतर थी। उन्हें समाज में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त था। उत्तर वैदिक काल में महिलाओं की स्थिति में गिरावट शुरू हुई। बाल विवाह, पुरुष बहु-विवाह, विधवा पुनर्विवाह निषेध, पर्दा प्रथा जैसी रीतियाँ लागू की गई। 3री से 11वीं सदी के काल को धर्मशास्त्र काल कहा जाता है। इस काल में महिलाओं की दशा और निम्नतर हो गई। मध्य काल में अर्थात 11वीं से 16वीं सदी के बीच देश में मुगल शासकों का राज रहा। महिलाओं को उनके अस्तित्व के लिए पूरी तरह पुरुषों के अधीन बना दिया गया। 18वीं सदी के प्रारंभ होने तक महिलाओं का जीवन स्तर गिरता ही गया। सामाजिक अस्पृश्यता और लिंग भेद का राक्षस ने महिलाओं के अस्तित्व को निर्मम पंजों में जकड़ लिया। पति की मौत हो जाने पर स्त्री को पति की जलती चिता पर सती किया जाने लगा। 

      सदियों की त्रासदी के बाद महिला उत्थान की ओर पुरुष प्रधान समाज  करवट लिया। अनेक समाज सुधारक और शिक्षाविद महिला अत्याचार के खिलाफ जंग छेड़े। ब्रह्म समाज के संस्थापक राजा राम मोहन राय की अगुआई में 4 दिसम्बर 1829 को सती प्रथा से महिलाओं को मुक्ति मिली। उसके बाद बाल विवाह, विधवा पुनर्विवाह निषेध, पुरुष बहु-विवाह आदि के खिलाफ कई विधेयक पारित किए गए। 19वीं सदी के मध्य में भारत के आजाद होने के बाद 26 जनवरी 1950 को महिलाओं को पुरुषों के बराबर का संवैधानिक अधिकार मिला। हम इक्कीसवीं सदी के तीसरे दशक में हैं। महिलाओं को सामाजिक बराबरी का वास्तविक अधिकार चाहिए। बेटियों को बेटों के बराबर शिक्षा चाहिए। आइए हम महिलाओं के संस्कार का साधक बनें उनकी प्रगति का बाधक नहीं। महिला दिवस की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।   

 नोट- लेखक भारतीय जीवन बीमा निगम में अधिकारी हैं और यूरेका ग्रुप ऑफ इंटरनेशनल जरनल के एडिटोरियल बोर्ड के मेंबर हैं।


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