विश्व पर्यावरण दिवस पर अनमोल संदेश:- लेखक मनोज कुमार


 विश्व पर्यावरण दिवस पर लेखक मनोज कुमार द्वारा लिखी गई।
  वायुमंडल और जीव-जंतुओं के पारस्परिक संबंधों पर पर्यावरण का संतुलन निर्भर करता है। प्रकृति की सुरम्य वाटिका में चित्र विचित्र के पेड़-पौधे व जीव-जंतुओं का बसेरा है। सभी जीव-जंतुओं में मनुष्य स्वयं को श्रेष्ठ घोषित कर रखा है और पृथ्वी के समस्त सजीव व निर्जीव वस्तुओं को हमेशा स्वार्थ के तराजू पर तौलता रहा है। इस स्वार्थ में वह भूल गया कि पृथ्वी केवल मनुष्य का घर नहीं है। इसी भूल ने पर्यावरण संतुलन को बिगाड़ा है। छोटे-बड़े जीव, पेड़-पौधे, विषाणु, परमाणु सब का बसेरा पृथ्वी पर है। प्राकृतिक संसाधनों का लगातार दोहन करने से पर्यावरण असंतुलित होता है। मिट्टी, हवा, पानी प्रदूषित हो जाता है, जिससे प्रकृति का अस्तित्व खतरे में पड़ जाता है। फिर अपने अस्तित्व की रक्षा करने प्रकृति प्रलयकारी हथियारों का प्रयोग करती है। अतिवृष्टि, बाढ़, सूखा, भूकंप, चेचक, कोरोना, सुनामी, ताउते आदि इसके ऐसे खतरनाक हथियार हैं, जिसके जद में जल, जंगल, जमीन, पहाड़, आदमी, जानवर सभी आते हैं। कोरोना वैश्विक महामारी के कारण हम आर्थिक संकट के साथ प्राण संकट के दौर से भी गुजर रहे हैं। इस महामारी ने पूरी दुनिया को ऑक्सीजन का मूल्य बता दिया है। हम अपने घरों के वास्तविक विंडो बंद कर हम माइक्रो सॉफ्ट के विंडो खोले बंद कमरे में बैठे हैं और वन्य प्राणी स्वछन्द विचरण कर रहे हैं।
      प्रकृति की मार से बचने के लिए हमें उसके शरण में ईमानदारी से जाना होगा। प्राकृतिक संतुलन बनाए रखने के लिए वन संपदा को घर के आभूषण की भांति सुरक्षित रखना होगा। वन्य जीवों को अपने बच्चों की तरह लाड़-प्यार और स्वच्छंदता प्रदान करना होगा। जंगल पृथ्वी का फेफड़ा है। वातावरण से कार्बन-डाइआक्साइड लेकर जंगल हमें आक्सीजन  वापस करते हैं वो भी बिल्कुल मुफ़्त। पेयजल बचाने और बाढ़ से बचने के लिए हमें पेड़ लगाना होगा, जंगल बचाना होगा और प्रदूषण घटाना होगा।
आज मनुष्य प्रकृति पर विजय प्राप्त करने का सपना देखने लगा है। यही कारण है कि  प्राकृतिक सन्तुलन बिगड़ गया है। जीवनदायिनी प्रकृति कुपित होकर विनाश की ओर अग्रसर है, परन्तु मनुष्य इस असन्तुलन के प्रति अब भी सावधान नहीं हो रहा है, फलतः पर्यावरण सुरक्षा की समस्याएँ बढ़ती जा रही हैं। इसके अलावा निरन्तर जनसंख्या वृद्धि, औद्योगीकरण एवं शहरीकरण ने तीव्रगति से प्रकृति के हरे–भरे क्षेत्रों को कंक्रीट के जगलों में परिवर्तित कर दिया है। आज सांस लेने के लिए शुद्ध वायु का अभाव होता जा रहा है, जिससे अनेक प्रकार के रोग उत्पन्न हो रहे हैं, ओजोन परत का क्षरण तेजी से हो रहा है। ‘जल ही जीवन है’ का जाप करनेवाला मनुष्य स्वयं जल के लिए समस्या बन गया है। शहरों के मल–मूत्र, कचरे तथा कारखानों से निकलने वाले अपशिष्ट पदार्थों को नदियों में प्रवाहित कर दिया जाता है, जिससे जल अशुद्ध होता है।
इसी प्रकार पैदावार बढ़ाने के लिए किसान जिस तेजी के साथ कीटनाशक, शाकनाशक और रोगनाशक रसायनों तथा उर्वरकों का प्रयोग कर रहे हैं, वह पर्यावरण सुरक्षा के लिए समस्या ही है।
हमें पर्यावरण सुरक्षा की महत्ता को समझना ही होगा।
 बेलगाम महत्त्वाकांक्षाओं, और वैश्विक प्रतिस्पर्धाओं के चलते पर्यावरण प्रदूषण का भीषण संकट उत्पन्न हो गया है। प्रदूषण के आधिक्य से पृथ्वी के अनेक जीव और वनस्पतियाँ लुप्त हो गए हैं और अनेक लुप्त होने के कगार पर हैं। यदि पर्यावरण प्रदूषण इसी गति से बढ़ता रहा तो वह दिन भी दूर नहीं, जब हमारा अस्तित्व भी खतरे में पड़ जाएगा।
हमें सुरक्षित और स्वस्थ जीवन की सम्भावना सुनिश्चित करने के लिए हमें न केवल पर्यावरण की   सुरक्षा करनी  होगी, अपितु उसे सुरक्षित रखने का भी उत्तरदायित्व निभाना होगा।

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